प्रोफेसर नित्यानंद तिवारी की छवि स्मृति में आते ही कवि शमशेर की एक काव्यपंक्ति की अनायास याद हो आती है - 'सगुन दिवस का विचारता-सा मौन।' छठे वेतन आयोग के कार्यान्वयन और सातवें वेतन आयोग के सिफारिशों के लागू होने का इंतजार करते खुशहाल मध्य-वर्ग तथा सुखासीन समुदाय के तंदुरुस्त और बड़बोले शिक्षक मित्रों के बीच दुबली-पतली कायावाले तिवारी जी का दहाड़ता हुआ मौन हममें से कुछ लोगों को भले न सुनाई पड़े, किंतु, पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाले छात्रों और प्राध्यापकों के लिए उनकी समझदार चुप्पी आज के तथाकथित उत्तर-आधुनिक युग में पहले की अपेक्षा ज्यादा अनुकरणीय है। वजह यह कि जैसे ठीक-ठीक पढ़ाने के लिए यथायोग्य खुद पढ़ना-लिखना जरूरी है, वैसे ही कुछ मतलब की बात करने के लिए दूसरों को सुनने का धीरज भी अपरिहार्य है।
याद रहे कि इस सुनने-सुनाने के क्रम में व्यक्तिगत बातों पर नित्यानंद जी का काष्ठमौन धारण कर लेना भी मानीखेज हुआ करता है। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय और मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी में संगोष्ठी के दरमियान उनके संपर्क में आने पर मैंने अनुभव किया कि उम्र के इस पड़ाव पर भी नई से नई किताब पढ़ने और युवा पीढ़ी को जल्दबाजी में छोटी पगडंडी पर चलने के बजाए मुख्य सड़क से पूरा फासला तय करके ज्ञान के अथाह सागर में तैराकी की जगह गोताखोरी करने की प्रेरणा देना उनका स्वभाव है। इस प्रसंग में मुरारि के सुप्रसिद्ध श्लोक का स्मरण स्वाभाविक है :
अब्द्धिर्लन्घितेव वानरभटैः किन्त्वस्य गंभीरताम्।
आपाताल - निमग्न - पीवरतनु-र्जानाति मद्राचलः।।
सार्वजनिक कार्यक्रमों में नई पीढ़ी के रचनाकारों और प्राध्यापकों की अनुभूति की व्यापकता और गहराई को थाहती-तौलती प्रो. तिवारी की अनुभवी आँखें तथा कुँवर नारायण की एक कविता का शीर्षक उधार लेकर कहें तो 'साथ के लोगों' में अपनी पुरानी पहचान को वापस पाने का संतोष उनके चेहरे पर साफ झलकता है :
"साथ के लोगों में
अब बहुत कम लोग बचे हैं।
जो हैं वे
बाद के लोगों की भीड़ में
कुछ इस तरह हैं
कि उनमें से अचानक जब
कोई मिल जाता है
तो पहचान कर आश्चर्य होता है
कि उसमें अब भी
ऐसा कुछ बचा रह गया है
जिसे पहचानना
अपनी ही किसी पुरानी
पहचान को वापस पाना है।"
(कुँवर नारायण : हाशिए का गवाह)
मात्रा-भेद से कुछ इसी तरह की बात मैंने अपने गृहनगर मुजफ्फरपुर में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, हिंदी के कृती कवि और नवगीतकार राजेंद्र प्रसाद सिंह और अपभ्रंश काव्य के विद्वान प्रोफेसर प्रमोद कुमार सिंह में भी देखी है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य नामवर जी, केदार जी और मैनेजर पांडे भी इसी परंपरा को समृद्ध करने वाले महान शिक्षक रहे हैं। एक हद तक शिवकुमार मिश्र और 'वक्रोक्ति सिद्धांत और छायावाद' ग्रंथ के लेखक तथा हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में लगभग तीन दशक पूर्व मेरे शिक्षक रहे स्वर्गीय विजेंद्र नारायण सिंह में भी यह गुण था। कहने की जरूरत नहीं कि विश्वविद्यालयों में ऐसे विद्वान अध्यापकों की पीढ़ी अब समाप्त प्रायः है - 'तेहि नो दिवसा गतः'।
वस्तुतः डॉ. नगेंद्र के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विद्वान प्राध्यापकों की जो त्रिमूर्ति पूरे देश में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने वालों के बीच अपने शब्द और कर्म की वजह से बहुचर्चित रही है, उनमें निर्मला जैन, नित्यानंद तिवारी और विश्वनाथ त्रिपाठी शामिल हैं। इनमें निर्मला जैन अपने तल्ख अंदाज के साथ ही साहित्य-सिद्धांत पर अद्भुत पकड़ और विपुल मात्रा में आलोचनात्मक लेखन, नित्यानंद तिवारी अपने मितभाषी स्वभाव और नए-पुराने साहित्य की सामयिक व्याख्या और विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी व्यवहार कुशलता तथा आलोचना कर्म के अलावा सृजनात्मक लेखन के कारण जाने जाते रहे हैं।
गौरतलब है कि इनमें मात्रा की दृष्टि से डॉ. तिवारी का लिखा-बोला भले ही अल्प रूप में पुस्तकाकार सामने आया हो, पर उसमें वजन कम नहीं है। बहरहाल, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे उनके व्याख्यानों व आलेखों के अलावा उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हैं - मध्ययुगीन रोमांचक आख्यान, आधुनिक साहित्य और इतिहास, सृजनशीलता का संकट, प्रसंग और आलोचना, मध्यकालीन साहित्य पुनरावलोकन, 'एक तरह की कला के विरुद्ध' और अन्य निबंध, साहित्य का स्वरुप।
वस्तुतः वे उन गिनेचुने आलोचकों में एक हैं जिन्होंने साहित्य और संस्कृति की व्याख्या करने के साथ ही हिंदी में आलोचना की संस्कृति को समृद्ध किया है।
नित्यानंद तिवारी शिद्दत के साथ महसूस करते रहे हैं कि "पुराने साहित्य को बोझ और नए साहित्य को गतिशील मानकर चर्चा करने में एक खास किस्म का उत्साह और आसानी होती है और अगर पक्षधरता उलट दी जाए तो भी उत्साह के किस्म और आसानी के स्तर में कोई अंतर नहीं पड़ता... अपनी सामयिक स्थिति को परिभाषित किए बिना और उस जमीन पर मजबूती से खड़े हुए बिना सदियों का ज्ञान बोझ और पागलपन के अलावा और कुछ नहीं है।"
लगभग पूरी दुनिया में इतिहास की छाती पर मूँग दलते मिथक के महिमामंडन और धार्मिक चरमपंथ तथा फिरकापरस्ती के नए सिरे से उभार के इस युग में अपने पुराने साहित्य को बोझ मानकर नकार देने और नए साहित्य में हर सामयिक समस्या का समाधान ढूँढ़ने वाले अध्येताओं को याद दिलाना जरूरी है कि कोई चाहकर भी इतिहास से पिंड नहीं छुड़ा सकता। इतिहास को मार्क्स ने ठीक ही प्राक-भविष्य (Pre-future) कहा है। इसलिए भविष्य निर्माण के लिए इतिहास और इतिहास की विभिन्न कालावधियों में रचित साहित्यिक कृतियों से दो-चार होना हमारी नियति है। इस क्रम में अतीत के बजाए जब हम अपने वर्तमान की जमीन पर खड़े होकर पुराने साहित्य की सामयिक व्याख्या में प्रवृत्त होंगे, तभी समाज को भविष्य के लिए कोई सार्थक संदेश प्राप्त हो सकेगा।
कहने की जरूरत नहीं कि अपने समय-समाज से जुड़कर अतीत से संवाद किए बगैर पुरानी कही जाने वाली कृतियों की कोई भी व्याख्या पंडिताऊपन से ग्रस्त हो जाने के लिए अभिशप्त होती है। परिणामतः उसमें पांडित्य का रस भले मिल जाए पर उस स्फूर्ति और ताजगी का नितांत अभाव होता है, जो आलोचना को सर्जनात्मक साहित्य का दर्जा दिलाती है। विजयदेवनारायण साही और रामपूजन तिवारी की जायसी पर लिखित पुस्तकों से गुजरते हुए इस बात को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह भी कि तुलसीदास रचित दोहे और जायसी के दोहे में मात्रा-भेद के चलते उनके रचना विधान तथा रचनात्मक अभिप्राय और प्रभाव में पैदा होने वाले अंतर से अनभिज्ञ भक्ति काव्य के उत्साही आलोचकों से भिन्न नित्यानंद तिवारी के व्याख्यानों एवं निबंधों में मौजूद पुराने साहित्य की नई सामयिक व्याख्या इसलिए विश्वसनीय है, क्योंकि वे शास्त्रीयता एवं पांडित्य की शक्ति और सीमा से पूरी तरह वाबस्ता हैं।
उनके आलोचक के लिए अतीत का वारिस होना गौरवपूर्ण या खतरनाक होने के बजाए एक ऐसा दायित्व-बोध है, जो अतीत के व्याख्याता के "अनुभव के भीतर से फालतू उत्साह और आसानी के भाग को समाप्त कर देता है।" इसका सुफल उनके ही शब्दों में यह होता है कि व्याख्याता के "अनुभव के भीतर एक नई अंतर्वस्तु पैदा हो जाती है जो प्रश्नों और व्याकुलताओं का सामना करने में सार्थक होती है।"
अपने इस नजरिए से जायसी कृत 'पद्मावत' के सुप्रसिद्ध 'सुआ-संवाद खंड' में निहित 'संघर्ष का कला-विवेक' को उद्घाटित करते हुए डॉ. तिवारी सवाल उठाते हैं कि - "इस खंड के चारों पात्र - राजा, रानी, तोता और धाय, मध्ययुग के सामाजिक तथ्य हैं या महज रूपक या प्रतीक हैं - आत्मा, परमात्मा, गुरु के? इन्हें हम रूपक या प्रतीक से भिन्न सामाजिक तथ्य मानें तो किस तरह से?" इस संदर्भ में उनकी स्थापना है कि मध्ययुगीन समाज अध्यात्म और काम की अतिजीवी शक्तियों से आक्रांत था और इन दोनों क्षेत्रों में स्त्री की स्थिति नगण्य और तुच्छ थी। उनके शब्दों में मध्यकाल में वह अध्यात्म में सबसे बड़ी बाधा थी ही, काम के क्षेत्र में भी वह केवल उपभोग की वस्तु थी। उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता और अस्मिता नहीं थी। "कवि ने उस आध्यात्मिकता और कामुकता से भरे समाज में नागमती की 'प्लेसिंग' इस तरह से की है कि नारी की सामाजिक हैसियत अत्यंत त्रासद रूप में उभरती है।"
'पद्मावत' के इस लोकप्रिय खंड की नब्ज पर सही जगह उँगली रखते हुए प्रो. तिवारी ने विस्तार से बताया है कि किस प्रकार इस पूरे खंड में नागमती का 'डर', 'संकट', 'रूप', 'अधिकार का घमंड' और तोते का साहस और संकट, दोनों ही मानसिकताएँ तत्कालीन समाज की तथ्यगत सच्चाइयाँ हैं। सवाल यह है कि तात्कालिक समाज की ये 'तथ्यगत सच्चाइयाँ' कविता के रचना-विधान में कैसे अनुस्यूत होती हैं। उनके अनुसार "कवि की प्रतिभा का कमाल इस बात में है कि वह दोनों सामाजिक सच्चाइयों को परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध तनावपूर्ण विधान में संगठित कर देता है। वह इन सच्चाइयों की कल्पना नहीं करता, वे तो समाज में मौजूद हैं, उसकी कल्पना और कला इस तनाव के संगठन में है।" प्रकारांतर से आलोचक यहाँ रेमंड विलियम्स की 'अनुभूति की संरचना' का उल्लेख करते हुए परस्पर विरोधी-सी प्रतीत होने वाली अनुभूतियों के जिस तनावपूर्ण संगठन को जायसी की कविता में रेखांकित करते हुए उसमें कला की सिद्धि का दिग्दर्शन करा रहा है, उसे एलेन टेट ने अँग्रेजी कविता के हवाले से 'काव्य में तनाव' के रूप में अभिहित किया है।
इस खंड में तोता द्वारा राजा को पद्मावती के रूप-सौंदर्य का अभिज्ञान कराने से नागमती के मन में पैदा हुए डर, तोता को छिपाने-मरवाने की उसकी मंशा और अंत में राजा की जिद पर पुनः राजा को तोता सौंपने की बाध्यता की मनःस्थिति को महाकवि जायसी ने इस प्रकार व्यक्त किया है -
जुआ हारि समुझी मन रानी। सुआ दीन्ह राजा कहें आनी।।
मान मते हो गरब जो कीन्हा। कंत तुम्हार मरम मैं चीन्हा।।
'रामचरितमानस' में राम के वनगमन के अवसर पर कौशल्या के मन की घुटन से नागमती की घुटन की तुलना करते हुए आलोचक विलक्षण सूझ का परिचय देते हुए दो मध्ययुगीन कृतियों के इन दोनों पात्रों की वैयक्तिक घुटन को तात्कालिक समाज में स्त्री की घुटन से जोड़ते हुए 'लूसिएँ गोल्डमान' के हवाले से कविता में व्यक्त इस मानसिक संरचना की मध्यकालीन समाज में पूर्व उपस्थिति की ताकीद करता है। इसके बाद वह नागमती के कथन का अर्थान्वयन करता है : "...और मैं तो जानती थी कि तुम मुझमें ही मिले हुए हो लेकिन जब ताक कर देखती हूँ तो सबके पास हो।" और अंत में उसकी चुभती हुई एक टिप्पणी है : "यह जो दार्शनिकीकरण है उसके पीछे 'मरम मैं चीन्हा' का व्यंग्य धधकता रहता है। यानि तुम महान हो, तुम नीच हो।"
यह कविता के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की पराकाष्ठा के साथ ही नित्यानंद तिवारी के आलोचक की सर्जनात्मकता का सबूत भी है।
कहने की जरूरत नहीं कि अस्सी के दशक में बीजिंग में स्त्री अधिकारों को लेकर हुए सम्मेलन में दुनिया के विभिन्न देशों से आए प्रतिभागियों द्वारा स्त्री के प्रति भेदभाव को नस्लीय भेदभाव करार देने की माँग के साथ ही रेडिकल स्त्रीवाद से लेकर समन्वित स्त्रीवाद तक की तमाम बहसों से प्रेरित और प्रभावित होकर ही पद्मावत के 'सुआ-संवाद खंड' की उपर्युक्त व्याख्या संभव है। ऐसा विश्लेषण यदि ठेठ मार्क्सवादी आलोचकों के यहाँ या 'नई कविता' की जमीन पर खड़े विजयदेवनारायण साही की पुस्तक 'जायसी' में नहीं मिलता, तो इसमें चकित होने वाली कोई बात नहीं है।
साहित्य को समाजविज्ञान का उपनिवेश बनने से बचाते हुए इतिहास, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र एवं मनोविज्ञान के सिद्धांतों का नई-पुरानी साहित्यिक कृतियों के विश्लेषण-क्रम में यथासमय समानुपातिक प्रयोग करके रचना के विचारधारात्मक अर्थ को उद्घाटित करने में प्रोफेसर तिवारी को महारत हासिल है। अपने दूसरे गुरुभाइयों की तरह साहित्यिक कृतियों को इतिहास की धारा में रखकर देखना और विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करना उनकी आलोचनात्मक प्रक्रिया की विशेषता है। इस क्रम में वे 'संग्रह-त्याग' का विवेक बखूबी रखते हैं और भारत की सामासिक संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता की पुरजोर वकालत करते हैं।
शास्त्रों में विस्तार से धर्म-भाषा और दीक्षागम्य भाषा का अंतर स्पष्ट किया गया है। किंतु प्रो. तिवारी हमें बताते हैं कि काव्यभाषा या कलात्मक संरचना के कारण मूल विषय का रचनात्मक प्रभाव कैसे अपने प्रतिपाद्य विषय से भिन्न ही नहीं। बल्कि विपरीत होता है। एक व्याख्यान में उन्होंने 'पद्मावत' में वर्णित 'हिंदू-तुरुकों का संघर्ष' के संदर्भ में साहित्यिक कृतियों की महती भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा है कि "हिंदू और तुरुकों में लड़ाई हुई। पूरी कथा को जायसी ने भाषा, चौपाई में लिख दिया और जब कहानी बन गई तो उसका विषय (हिंदू-तुरुकों का संघर्ष) प्रेम की संवेदना में बदल गया। शब्द-भाषा और कथा संरचना की यह अद्भुद परिवर्तनकामी प्रक्रिया है। उसे हिंदू और तुरुक होकर न पढ़ा जा सकता है, न उसका रस लिया जा सकता है। जो हिंदू और तुरुक होकर पढ़ना चाहता है, वह तो घटना में ही गर्क हो जाएगा यानी कहानी से दूर हो जाएगा। जो हिंदू और मुसलमान होते हुए भी अपनी धार्मिक पहचान का अतिक्रमण करने वाला हो, वह कहानी के निकट हो जाएगा। 'पद्मावत' की साहित्यिक संरचना भाव, रूप और समाज का भी रूपांतरण करती है।" कहना न होगा कि शुक्ल जी, साही जी और डॉ. तिवारी समेत 'पद्मावत' के तमाम अध्येताओं द्वारा चिह्नित यह 'मानुष प्रेम', 'नारद भक्तिसूत्र' के दार्शनिक अनिर्वचनीय 'मूकास्वादानवत प्रेम' से कहीं ज्यादा मानवीय है।
बावजूद इसके जब डॉ. तिवारी किसी दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित एक खबर का हवाला देते हुए भक्तिकाव्य की परंपरा में अनुस्यूत भारत की गंगा-जमुनी तहजीब और सामासिक संस्कृति के असली वारिस के तौर पर कट्टर हिंदू और मुसलमान समुदायों के प्रतिनिधियों के बरअक्स एक ऐसी मोहतरमा का नामोल्लेख करते हैं, जो गुजरात के दंगाग्रस्त लोगों को न्याय दिलाने को लेकर अतिसक्रिय होने पर भी 'फोर्ड फाउंडेशन' से अपने स्वयंसेवी संगठन के लिए दान में प्राप्त बड़ी धनराशि के घोटाले में खुद आरोपी हैं, तो बात बन नहीं पाती। बहरहाल, इसे एक बड़े आलोचक के विचलन के तौर पर देखा जाना चाहिए।
वस्तुतः साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में लोकप्रिय नुस्खा अपनाने वाले लोगों के लिए यह एक सबक भी है। याद रहे कि अखबार में प्रकाशित किसी समाचार के समुचित रचनात्मक तत्वांतरण से रघुवीर सहाय या नागार्जुन की तरह कविता तो रची जा सकती है, पर सार्थक आलोचना हरगिज नही। ऐसी आलोचना के सतही राजनीतिक बयानबाजी में बदल जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
भारत जैसे बहुधार्मिक, बहुजातीय और वैविध्यपूर्ण सभ्यता और मिलीजुली संस्कृति पर मंडराते खतरे से निजात दिलाने के लिए 'पद्मावत' के संदर्भ में विजयदेवनारायण साही द्वारा रेखांकित 'फिरदौसी समन्वय' की प्रक्रिया बहाल रखने हेतु चिंतनशील मध्यकालीन कविता की सामयिक व्याख्या में प्रवृत्त हमारे समय के आलोचकों को याद दिलाना शायद जरूरी हो कि आज सूफी मत और काव्य में निहित प्रेम-संवेदना को किसी अन्य मजहब के बजाय खुद इस्लाम धर्म की अंदरूनी फिरकावारियत से खतरा है। मध्यपूर्व में 'अलकायदा', 'इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया' आदि के अलावा 'हिजबुल्लाह' और 'बोकोहराम' जैसे संगठन और भारतीय उपमहाद्वीप में अरब मुल्कों की इमदाद पर इस्लाम के जिस वहाबी या सलाफी रूप का तेजी से विस्तार हो रहा है, उसके अनुसार सूफियों के यहाँ मौसिकी और कव्वाली का प्रचलन हिंदुओं के भजन-कीर्तन की इस्लाम में अवांछित घुसपैठ है और इससे छुटकारा पाने के लिए सूफी मजारों पर ऐन 'धमाल' के वक्त बम धमाके भी हो रहे हैं। हाल में क्वेटा (पाकिस्तान) के पास एक सुप्रसिद्ध सूफी दरगाह में 'लश्कर-ए-जांघवी' द्वारा प्रायोजित बम विस्फोट में सैकड़ों लोग मारे गए हैं और बंगलुरु में सलाफियों के सशस्त्र हमले में सूफी संप्रदाय के कई लोग बुरी तरह घायल हुए हैं। विचित्र बात है कि पाकिस्तान के जिस पंजाब प्रांत में सूफी फकीर बाबा बुल्लेशाह का मजार है, उसी प्रांत में 'लश्कर-ए-तैयबा', 'जैश-ए-मुहम्मद', 'जमातुल दावा' और 'लश्कर-ए-जांघवी' के मुख्यालय भी हैं और अभिनवगुप्त, लल्लेश्वरी और हब्बा खातून की भूमि कश्मीर घाटी में खीर भवानी तथा हजरतबल की मिलीजुली संस्कृति को ठेंगा दिखाते हुए धार्मिक चरमपंथी छोटे बच्चों के स्कूल जला रहे हैं।
कुल मिलाकर कहना यह है कि 'मानुस प्रेम भयऊ बैकुंठी' की घोषणा करने वाला तसव्वुफ दर्शन और सूफी संप्रदाय आज इस्लाम के भीतर भयानक संकट के दौर से गुजर रहा है। यह बात अलग है कि धार्मिक चरमपंथियों और वहाबियों के यहाँ उन्माद चाहे जितना हो, उनमें उस कवित्व का अभाव है जिसमें निहित 'त्रासद दृष्टि' (Tragic Vision) की वजह से हम अपनी धार्मिक पहचान को अतिक्रमित करके अश्रुपूरित नेत्रों से से बाबा बुल्लेशाह की तरह मजहबी किताबों का निरंतर पठन-पाठन करके आलिम-फाजिल होने के बजाए 'अपने आप को पढ़ना' बेहतर महसूस करने लगते हैं। ('पढ़-पढ़ आलिम फाजिल होयां/अपने आपको पढ़या ही नइ' : बुल्लेशाह) एक-दूसरे की निर्मम हत्या करने वाले आतंकी मजहबी संगठनों के मुजाहिदीनों को अपने विरोधियों की लाश पर पागलपन में नाचते देखकर जायसी याद आते हैं, जो अलाउद्दीन और रत्नसेन के बीच हुए युद्ध में संभावित अनाचार की आशंका से क्षत्राणियों के जौहर कर लेने, युद्ध के दरमियान तमाम शूर-वीर जवानों के मारे जाने और अंततः राजमहल के धराशायी हो जाने के बाद चित्तौर के कथित इस्लामीकरण पर उदास होकर कहते हैं :
जौहर भई इस्तिरी पुरुख भए संग्राम
पातसाहि गढ़ चूरा चितउर भा इसलाम।
प्रोफेसर साही ने जायसी पर लिखते हुए बार-बार इस दोहे में निहित अर्थध्वनि की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है और प्रो. तिवारी भी अपने व्याख्यानों में इसे बारहा उद्धृत करते रहे हैं।
साहित्य के एक आलोचक और विचारक के रूप में नित्यानंद तिवारी को मूलगामी (Radical) कहने पर कुछ अग्निवर्षी रचनाकारों और क्रांति के ढिंढोरची आलोचकों को आपत्ति हो सकती है। पर स्मरणीय है कि मनुष्य होने के लिए जब मूल मानदंड मनुष्यता ही है, तो धर्म, जाति, वर्ग, लिंग आदि को लेकर इतिहास की विभिन्न कालावधि में पैदा हुए पूर्वग्रह की वजह से मानव समाज में निर्मित तमाम तरह की गुलामी की संरचनाओं से मनुष्य की मुक्ति के लिए सतत सोचने-विचारने वाले विद्वान को रेडिकल कहना अतिशयोक्ति नहीं है।
यह आकस्मिक नहीं है कि एक प्रोफेसर-आलोचक के रूप में डॉ. तिवारी साहित्य-अध्ययन की पद्धति और आलोचना की प्रक्रिया को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं तथा इस संदर्भ में आलोचक के दृष्टिकोण और अपने समय-समाज से उसका बाखबर होना जरूरी मानते हैं। वजह यह कि इसके बगैर आलोचना किसी महान कृति की सामयिक अर्थवत्ता एवं सार्थकता की पड़ताल करने के बजाए पिष्टपेषण या चर्वितचर्वण करने लिए अभिशप्त होती है। अपने एक व्याख्यान में वे स्पष्ट रूप में इस बात को स्वीकार करते हुए कहते हैं : "मेरी कठिनाई अध्ययन पद्धति की है। उस जगह को खोजने-पाने की है जहाँ से भक्ति को फिर से देखा जा सकता है। जिस तरह किसी वस्तु का चित्र, कोण और कैमरे के फोकस पर निर्भर करता है, उसी तरह भक्ति-साहित्य का पुनरावलोकन भी देखने के कोण और दूरी पर निर्भर करता है।"
सच तो यह है कि नित्यानंद तिवारी का आलोचना साहित्य एक ऐसी स्मृति-मंजूषा की तरह है जिसमें उनकी हर नई स्थापना पुरानी स्थापनाओं को याद करती हुई और साथ ही अपने निजी पदचिह्न छोड़ती हुई आगे बढ़ती है। अभिनवगुप्त के शब्दों में कहें तो यह स्थिति मधुमास में हरे-भरे वृक्ष की तरह है, जहाँ कृति में पहले देखे हुए अर्थ-संदर्भ एवं लक्षित संरचनाएँ भी रस-परिग्रह से नवीन समझ को जन्म देती हैं :
दृष्टपूर्वा अपि ह्यर्थाः काव्ये रसपरिग्रहात्।
सर्वे नवा इवाभांति मधुमास इव द्रुमाः।।